एक रहिस रमिया। एक रहिस केतकी। दूनों एके महतारी के बेटी रिहीन। खारुन नदिया ले चार कोस दूरिहा रक्सहूं बूड़ती मं एक गांव ‘कसही’। भइगे दूनों उहीं रहत रहींन अपन महतारी संग। महतारी ह खाली हाथ रहीस। खेतखार मं बनीभूती करके अपन जिनगी चलावय। रमिया केतकी बिहाव के लइक होगे। दुनों के रूपरंग सोन जइसे जग-जग
ले। उंखर भरे जोबन ल देख के सबो उंखरे डहार खिंचावत आवयं। समय अपन रंग देखइस। धान-कर्टई मिंजई खतम होगे, तहां ले बर बिहाव खातिर, सब कमइया किसान मन, लड़का लड़की खोजे बर निकलगें।
‘कसही’ गांव पहुंचिन, जहां ले रामभरोसा अउ दयानंद किसान मन, तरिया तीर, घाट मं पानी भरत, रमिया अउ केतकी ल देखके लुभागे। दुनों किसान मन रमिया अउ केतकी ल अपन-अपन बेटा बर मांग लीन। बिधवा महतारी के धन भाग।
अकती के दिन गोधुरी बेरा मं दुनों बेटी के बिहाव होगे। रमिया ह रामभरोसा के पत्तो (बहू) बनगे। केतकी ह दयानंद के पतो (बहू)। दुनों घर मं अब्बड़ चहलपहल। चार दिन अंजोरे अंजोर काबर कि सगा पहुना-अवइया जवइया अब्बड़ रिहिन। गांव के माई लोगन मन सांझकिन आवय, बइठय, बहू मन के रुप जस गावय, अपन बहू संग बराबरी करंय
अउ ईर्खा में भरके अपन घर लहुटय।
रमिया अउ केतकी के कोनो भाई नइ रिहिस। अउ कोनो परिवार घलो नइ रिहिस। दुनों बहिनी के गाँव ‘फुँडर’ ले ‘कसही’ जादा दुरिहा नइ रिहिस। जेठ के कस-कस घाम मं कइसे जायं? रमिया ह केतकी ल कइथे- ‘दिदि, तैं कोंहड़ा के भीतरी म बइठ जा, मैं ह रखिया के भीतरी मं बइठ जथंव। दुनों झन लुढ़कत लुढ़कत चलें देबो। रद्दा म तरिया में हाथ मुंह धोके, पानी पिबो, अउ पिपर के छाँव मं थोरिक सुस्ता के चल देबो’।
केतकी ह चहुँक के ‘हं’ कइथे। केतकी ह सास ससुर के पांव परिस। गोसइंया ले बिदा मांगिस। रमिया ल बिदा करत सास रोय लगिस। गोसइंया भरे गर ले कइथे- ‘में ह लेवाय पर आहूं’। रमिया के मन ह भरगे। केतकी कोहड़ा के भीतरी मं बइठगे। रमिया ह रखिया के भीतरी मं बइठगे। दूनों गाय लगिन-
‘चल रे कोंहड़ा चल
तीरे तीर चल।
चल से रखिया चल
धीर लगा के चल।’
आगू-आगू कोंहड़ा, पीछू-२ रखिया।
बिहनिया सुरुज भगवान नइ उए रिहिस ए- तब जात्रा सुरु होइस। ‘फुंडर’ गाँव पार कर डरिंन। आगू बढ़त गिंन। भिनसरहा गाय गरुआ मन, गीत गावत कोहड़ा अउ रखिया ल जात देखिन। कौतुक होगे। चरवाहा ह बंसुरी बजाय बर बंद कर दिस, अउ अकचका के खड़ा होगे। सब झन कोहड़ा रखिया ल रद्दा दिन। घाम बाढ़त-बाढ़त, मंझनिया होवत-होवत दुनों झन पिपरदेवता के बड़े रुख तरी पहुंचिन।
“थाम जा कोंहड़ा थाम जा थाम जा रखिया थाम जा’ अउ दुनों थाम दिन। दुनों बहिनीं बाहिर निकलिन। तरिया मं नहइन घाम मं खड़ा होके लुगरा सुखइंन। अंचरा भिगो के हथेरी म जल लइन अउ, पिपर के जर मं अरपित करिन। अतके मं गंभीर अवाज सुनइस-
‘कती जाथव’?
केतकी ह कोंवलाके कइथे- ‘गरीब बुढ़तरास के महतारी ल देखेबर।’
रमिया ह भंव चढ़ाके कइथे- ‘ससुरार ले मइके’
फेर गंभीर सुर ह कइथे- ‘पहिली मोर भुंइया ल बहारव अउ गोबर मं लिपव। तभे तुमन दुनों झन बइठ के सुसताहु।’
केतकी कहीस- ‘हव भगवान। तोर छांव सबो ल मिलय।’
रमिया कहीस- ‘हम काबर लिपबो ? कोनो दूसर करा बहरवा। हमन इहां रात नइ रुकन। काबर अतेक कमाबो ?’
रमिया बइठे रिहिस। केतकी ह बहारिस अउ, गोबर लान के रुख के चारों मुड़ा ल लिपिस। अब्बड़ घाम मं भुइंया सुखागे। पुरबा चलिस, त दुनों बहिनी सुतगें। जब उठींन त मंझनिया ढरगे रिहिस। केतकी ह पिपर के रुख के पांव परिस अउ बिनती करिस – ‘जइसे मोला छांव देव, ओइसने सबो रद्दा चलइया ल छांव देहु।’
रमिया ह न तो परनाम करिस अउ न तो कुछ बोलिस, उपर ले केतकी ऊपर झींक के रिस भर के कइथे- ‘चल न दिदि। ए बिन जीव के रुख तोर बात ल कइसे सुनही। ऊपर ले माथा टेकथस।’
केतकी अकबका के कइथे- ‘अइसे नइ बोलय रमिया। रुख मं घलो जीव होथे। ये ह हमला जीवन देथे।’ रमिया इ हाथ पकर के केतकी ल अपन डहार खिंचीस,अउ कोंहड़ा भीतर बइठइस। अपन घलो रखिया भीतरी मं बइठगे। दुनों झन फेर गाय, लगिन।
‘चल रे कोंहड़ा चल
तीरे तीर चल
चल से रखिया चल
धीर लगा के चल।’
सांझ होवत-होवत दुनों घर पहुँच गिंन। दाई के खुसी के ठिकाना नहीं। दुनों बेटी के पांव धोइस मया मं। ससुरार के सुखदुख पूछिस। बात
करत-करत खाए-पिए के सुध नइ रिहिस। थोरिक दिन महतारी घर रेहे के पाछु ससुरार के भरे पूरे धान के ढाबा कोठी, भूरी भइंस अउ धंउंरी गाय
के दूध, नान नान बछिया-बछवा, पंड़िया-पंड़वा अउ धन धान भरे घर, चउंक पूरे अंगना, मयारु सास, मया करइया गोसंइया के सुरता आथे, तहाँ ले, दुनों झन अपन-अपन गोसंइया के रद्दा देखथें। मास बीतत-बीतत दूनों झन के गोसइयां लेवाय बर आ जेथे।
दाई करा कछु, नइ रहिस। गरीबिन होके घलो रेवाज, पाले बर दुनों दमाद ल धोती धरा के अब्बड़ रोइस। रमिया केतकी घलो महतारी के मया मं डूब के झार झार आंसू बहइन। आखिर मं अपन-अपन गोसइंया संग रवाना होइन, भिनसरहा के बेरा। कोहड़ा अउ रखिया ल उेहें महतारी घर छोड़ दिन। अपन-अपन गोसइंया के हाथ पकड़े-पकड़े ओमन उही पिपर रुख के चारों डहार ल फेर बहारिस, लिपिस अउ सबो झन बिसराम करे लगिन ।
मंझनिया बीतगे। उतरती बेरा म सबो झन रवाना होइन। केतकी ह पिपरदेव ल परनाम करके बरदान मांगिस- ‘हे पिपरदेव ! परिवार ल सुखी राखबे। सब ल छाँह देबे। मोला बेटा दे दे। महतारी बना दे। मोर अपन अंचरा के छोर के धागा ल चढ़ाहंव।’
रुख ले हर-हर, खन-खन अवाज आय लगिस। अउ गुरुगंभीर सुर सुनइस- ‘जाव, दूधो नेहाव, पूतो फलव’ सबो झन चहुंक गे। फेर रमिया ह न तो परनाम करिस अउ न तो कुछ मांगिस।
सांझ होवत-होवत सबो झन घर पहुँचगे। जात्रा के बात करत-करत जेवन करत रहीन। अउ गोठियावत-गोठियावत सुतगें।
समय बीतत गिस। केतकी के पांव भारी होगे। तहां ले बेटा होइस। घर मं चीज बस बाढ़त गिस। खेत खलिहान मं फसल, अउ बारी मं सागपान बाढ़त गिस। ओ डहार रमिया के देहपान बने नइ रहय। घर मं दिन रात लरइ झगरा, होय लगिस। धानपान चउपट होगे। खेत खलिहान, खाली-खाली, बारी बरखरी सब बगरे-बगरे। गरीबी, असांति, रिस, खीझ सबो बाढ़त गिस।
एक रात केतकी अउ रमिया ल एके बेरा मं सपना दिखिस। उही ‘पिपरदेव’ ह केतकी ल किहिस- ‘तैं मोला माने गउने, पूजा करे, बन के पूजा करे। कंवलाय बने, परकिती माता के मान करे, झुक के बात सुने। तोर इही गुन ह तोर घर दुआर के बढ़ोत्तरी के कारन ए।’
उही ‘पिपरदेव’ ह रमिया ल उही बेरा मं सपना दिस। पिपरदेव ह किहीस- ‘तैं मोर बात नइ सुने। तैं बनदेवी अउ परकिती माता के महत्तम ल नहीं जाने माने। तैं अहंकार मं डुबे रेहे। तोर इही दोख ह, तोर घर परिवार के गरीबी के कारन ए। जऊन ह रुखराई के अपमान करथे, तऊन ह कभु सुखी नइ रहय। तहूं नइ रहस’
बिहनिया मुडसुद्धा नहा के अइस रमिया ह। अउ केतकी करा अपन सपना के बात बतइस। केतकी घलो ह अपन सपना के बात बतइस। रमिया आंसू बहावत-बहावत पछतावत रिहिस। ओला अपन दोख अउ अवगुन के गियान होइस। आंखी खुलगे।
रमिया बदलगे। ओ ह दिन रात बारी बखरी मं काम करे लगिस रुखराई देखय, त परनाम करय। धीरे-धीरे ओखर सुभाव बदलत गिस।
जब केतकी ह अपन बेटा ल ले के ‘पिपरदेव’ मेर अपन अंचरा के धागा चढ़ाय बर गिस, तभे रमिय घलो ह अपन गोसइंया संग उहां गिस।
‘पिपर रुख’ के चारों डहार ल बहारिस, गोबर मं लिपिस। जड़ मं जल चढ़इस अउ परनाम करत-करत केतकी सहीं बरदान मांगिस।
बछर ऊपर बछर बीतगे, रमिया घलो एक बेटा के महतारी बनगे।
‘पिपरदेव’ मं अंचरा के धागा चढ़ायबर गिस। तब ले लेके आज तक ‘कसही’ अउ ‘फूंडंर” गांव के संग-संग आगू पिछू के गांव के मन घलो ‘पिपरदेव’ के पूजा करन लगिन हर बछर अपन-अपन गांव के तरिया तीर म नवा रुख राई रोपत गिन। कहुं नीम, कहुं बरगद, कहूँ पिपर।
अब तो आमा, संतरा, जाम के रुख मं सबो के बारी बखरी भरगे, हरियर लागथे। रमिया अउ केतकी के कथा घर-घर सुनाके, गांव वाले मन रुख राइ ल पूजन लागिन।
कथा सिरागे, जावव घर दुआर मं बाती बारव, रांधे पसाए के बेरा होगे, जुगुर जुगुर बाती बारव।
– सत्यभामा आड़िल
(Satyabhama Adil आकाशवाणी रायपुर ले Chhattisgarhi भाषा वार्ता के रूप में प्रसारित वार्ता के संकलन ‘गोठ Goth‘ ले साभार)